Monday, 9 January 2017

गांधीजी और पिताजी (ज्ञानवर्द्धक चांटा)

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      गांधीजी और पिताजी
अथवा
ज्ञानवर्द्धक चांटा

                                                               द्वारा हकीकत राय शर्मा

(लेखक, हक़ीक़त की शिक्षाप्रद कहानियाँ हिंदी और अंग्रेजी में एवं यूट्यूब पर अपने नाम से उपलब्ध)


मेरी अवस्था लगभग 11 वर्ष की थी I  मेरे पिता एक छोटे से किसान थे परन्तु अपने परिश्रम के बल पर थोड़ी सी ज़मीन पर ही आश्चर्यजनक अधिक मात्रा में अन्न पैदा करके उन्होंने अपना सम्मान बहुत बढ़ा लिया था I जब वे पशु मेले से बैल खरीदने जाते तो में घर पर रह जाता था क्योंकि पशुओं के मेले में बच्चों को साथ नहीं ले जाया जाता था क्योंकि पशुओं में कई गुस्से वाले होते थे I पैंठ में अन्य पशुओं को बड़ी संख्या में देख वे बिदक जाते थे और आक्रामक हो जाते थे I वे कभी तो सिर और सीगों से प्रहार कर देते थे और कभी अपनी पिछली टांग तेज गति से पीछे की ओर मार कर घायल कर देते थे I वे भीड़ से डर की वज़ह से भी ऐसा करते थे I यह बात अलग है कि आज कल बड़ी भीड़ में इंसान लूट, हत्या और अपहरण जैसे अपराधों को आसानी से अंजाम देते हैं I

एक दिन मेरे पिताजी मेरे पुश्तैनी गाँव नबीनगर से हमारे पडौसी को साथ लेकर पशु पैंठ जाने लगे I मैने कहा, “मैं भी साथ चलूँगा I” मैंने यह बात दो तीन बार कह दी I पिताजी कुछ नहीं बोले I मैंने सोचा सम्भवत: वे मेरे प्रस्ताव पर विचार कर रहे थे I  मैंने अपना निवेदन दोहराया I मेरी आशा के विपरीत, इसबार भी पिताजी की ख़ामोशी ही मेरे हाथ लगी I मेरी माताजी ने पिताजी से कहा ,” पैसे दो जगह संभाल कर रख लो I पैंठ में जेबकतरे बहुत मिलते हैंI” इसबार भी पिताजी ने कुछ नहीं कहा I मुझे लगा कि पिताजी पर्याप्त रूप से पैसों की सुरक्षा को लेकर सतर्क थे इसलिए उन्होंने मेरी माताजी के सुझाव पर कोई प्रतिक्रिया नहीं की थी I मैं अभी भी साथ जाने की आज्ञा पाने का भ्रम मन में पाले हुए था I पिताजी और चाचाजी दोनों घर से एक साथ निकलने लगे I मैंने कहा, “ मैं भी तो निपुण हल चालक हूँ I आपकी अवस्था के कई लोग बैलों का हल इतनी अच्छी तरह नहीं चलाते जितनी अच्छी तरह से मैं हल चलाता हूँ , तो मुझे भी तो बैल ख़रीदने का अनुभव होना चाहिए I

इसबार पिताजी ने मेरी ओर देखा I उनकी आँखों में धमकी थी I उन्होंने क्रोधपूर्ण स्वर में कहा, “ तू मानेगा या --------.” मेरी माताजी ने मेरा हाथ पकड़ा और वे मुझे घर के अन्दर ले गयीं और कहा ,“ तू जवान हो गया और तुझे रत्तीभर भी अक्ल नहीं आयी I” मैने उत्सुकतावश अधीर स्वर में कहा ,” मैं समझा नहीं I मैंने ऐसी क्या ग़लती कर दी जो आप भी पिताजी की तरह ------I उन्होंने कहा ,“ अरे मुरिख यूँ समझ I जब तेरे प्रश्न के जबाब में तेरे पिताजी ने एक शब्द भी नहीं बोला तो  तुझे समझ जाना चाहिए था की तुझे जाने की अनुमति नहीं है I” मैंने कहा, “ मेरे बड़े ताऊजी, श्री शिव कुमार शर्मा जी, तो संस्क्रत में शास्त्री हैं I उन्होंने मुझे बताया था कि मौन का अर्थ स्वीकृति होता है तो मैंने पिताजी के मौन का यही अर्थ निकाल लिया I” माताजी ने एक बार मुझे और समझाया किन्तु ऊँची आवाज़ में, “अरे मुरिख ! आज यह समझ कि मौन का अर्थ मना करना भी होता है I” आज मैं बडे-बडे लोगों का बडे-बडे मुद्दों पर मौन का अर्थ भी समझ सकता हूँ I मेरी माँ के मुझे  मुरिख (मूर्ख) कहने में जो बात्सल्य, प्यार, आशीर्वाद, और थोडा गर्व भी छुपे थे आज प्रगति की दौड़ में दुर्लभ हो गये हैं I जब मैं अपने बच्चों और पुत्र-बधुओं से बहुत प्रसन्न होता हूँ तो उन्हें मूर्ख कहके बुलाता हूँ I यह मेरा व्यक्तिगत चयन है I कृपया इस पर ना तो आपत्ति करें ना इसे अपनाएं क्योंकि इसके लिए बहुत कुछ करने की आवश्यकता होती है अन्यथा---------------------भी बन सकता है I

पिताजी को जहांगीराबाद से शाम को अपने गाँव नबीनगर लौटना था और मुझे देखो कि मैं दोपहर से ही उनकी प्रतीक्षा करने लगा I दोपहर बाद मैंने माँ से  कहा, “ पिताजी कब आएगें नया बैल लेकर ?” माँ ने कहा, “ वे शाम को आएगें और यह भी हो सकता है की आज सही बैल मिले ही नहीं I ‘नहीं ’ शब्द सुनकर मेरा तो दिल ही टूट गया I मैंने माँ से कई बार यही प्रश्न किया तो माँ ने झुंझलाकर कहा, “ जा रस्ते में जा खड़ा हो और अपने पिताजी का इंतजार वहीं कर I मुझे घर का काम करने दे I” उन्हें पता नहीं था कि मैं शारीरिक रूप से ही घर में था I मानसिक रूप से तो में रास्ते में उनकी प्रतीक्षा ही कर रहा था I मैं हर 10-20 मिनट के अन्तराल पर उस रास्ते को देखता था जिसपर चलकर पिताजी और बैल को आना था I जब माँ ने देखा कि लडका कुछ ज़्यादा ही दिमाग़  खा रहा था तो उन्होंने मुझे बुलाया और कहा, “ घर मैं पहले से एक बैल है और गाय है I उनको पानी पिला और चारा डाल I”

 मैंने माँ की आज्ञा का पालन किया I मैंने भूसा में पानी डालकर उसमें आटा मिलाया I इस तरह खोर (पशुओं के लिए चारा खाने का स्थान) में चारा तैयार कर दिया I गाय को चारे तक लाया और उसकी जंजीर खूंटे में बाँध दी I गाय का बच्चा दौडते और नाचते हुए उसके साथ आ गया I आज का समय होता तो मैं उस सुन्दर दृश्य को अपने कैमरे में कैद कर लेता I लगभग 45 वर्ष बाद भी उस अनुभव के चित्र मेरी आखों के कैमरे में आज भी सुरक्षित हैं  I अब बैल को चारे के पास लाने की बारी थी I बैल का रस्सा मैंने पकड़ा तो आश्चर्यजनक घटना हुई I बैल अन्य दिनों तो चारे की ओर दौड लगाता था परन्तु आज भूखा होने पर भी वह चारा खाने के लिए उतावला नहीं था I मैंने पीछे मुडकर देखा कि बैल भी उसी रास्ते को देख रहा था जहाँसे पिताजी को दूसरा बैल लेकर आना था I मुझे लगा , “ मेरा बैल भी एक सामाजिक प्राणी है I वह भी चाहता है कि उसका साथी आ जाए I तो दूसरे पल मुझे लगा , “ बैल चाहता है कि उसका साथी आ जाए तो उसे भी काम मिल जाए क्योंकि एक बैल से हमारे यहाँ हल नहीं चलता था I’’ मुझे गर्व हुआ कि हमारा बैल भी काम की तलाश में था I आजकल कितने लोंगों को काम की तलाश है I यह आप भी भली भांति जानते हैं I बैल चारा खाने लगा और मैं घर वापस आ गया I

हमारा अति साधारण सा घर अति असाधारण स्थान पर था I हमारी दीवार से खेत प्रारम्भ होते थे I हमारे घर की सामने की दीवार पक्की थी और पीछे सब घर कच्चा था I दीवाली आने वाली थी I इसलिए पिताजी ने पक्की दीवार पर सफेदी कर दी थी I मैं उसी के पास छोटे से चबूतरे पर चल रहा था I मेरे हाथ में अब भी चारे के कुछ कण लगे हुए थे I अचानक मैंने पाया कि मेरा हाथ दीवार पर लग गया और दीवार पर धब्बा लग गया I मैं एक दम पीछे हटा और कपडे का टुकड़ा लेकर दीवार साफ की I मेरे माता-पिता ने मुझे कई बार डांटते हुए कहा था ,“ अरे, नालायक दीवाली आने तक तो दीवार को साफ रहने दे I’’ मैं हरबार उनसे कहता कि अब ऐसा नहीं करूँगा लेकिन यह बात भूल जाता और फिर से नहीं चाहते हुए भी दीवार पर धब्बा डाल देता था I आज पिताजी घर पर नहीं थे तो फटकार मारने का काम माताजी ने किया I विशेष बात यह थी कि आज डांट पड़ते समय मेरे दोनों छोटे भाई अनिल और देशभक्त भी वहीँ थे I मुझे बहुत बुरा लगा लेकिन क्या करता I ग़लती मेरी थी I

कुछ कहना चाहा परन्तु कह न सका I उन दिनों ऐसी सामाजिक व्यवस्था नहीं थी जैसी आज है I कुछ बच्चे ग़लती करते हैं और बड़ों के डांटने पर मुहँजोरी भी करते हैं I मैंने सोचा , “ मैं कभी किसी को नहीं डाटूंगा I क्षमा करें मैं यह वादा ना तो निभा सका और ना ही निभा सकता हूँ I मैंने  माताजी से क्षमा  मांगी और जानना चाहा, “पिताजी कब आयंगे ?’’ वे पहले से ही क्रोधित थीं  और बोलीं , “ टेलीफून कर ले I’’ मैं समझ गया कि उनके क्रोध का स्तर क्या था I यहाँ यह बताना आवश्यक है कि उन दिनों शहरों में भी लाखों लोगों में से बहुत कम के पास ही टेलीफोन होते थे I मैं तो गाँव में था I टेलीफोन करना तो क्या तब तक टेलीफोन ना मैंने देखा था और ना ही मेरी माँ ने I हाँ पिताजी कई बार दिल्ली और मोदीनगर जाते थे तो उन्होंने टेलीफोन देखा था I आप समझ गए होंगे की मेरी माताजी का मुझसे टेलीफून करने के लिए कहना कितना बडा व्यंग था I उनका व्यवहार न्यायोचित था I मैंने उन्हें कुछ अधिक ही परेशान कर दिया था I बार-बार एक ही प्रश्न मैं दोपहर से कर रहा था I

अब मैंने सफेद दीवार से लगे मिट्टी के ढेर पर अपने पैर रखे I वह मिट्टी  दीवार को मजबूती देने के लिए डाली गई थी I मेरे समक्ष क्षितिज तक फैला एक अदभुद खज़ाना था जो प्रकृति ने प्रसन्न होकर बिखेर दिया था लेकिन उस खजाने को उस समय कोई विशेष महत्व नहीं दिया जाता था क्योंकि सूर्य देवता प्रतिदिन ऐसा करते थे I मित्रो सूरज की स्वर्णिम किरणों ने मिट्टी, पेड, पौधे सभी को ऐसा सुन्दर बना दिया था कि जैसे किसी अति सुन्दर कन्या को विवाह के लिए सजाया गया हो I मैं जिस बैल की प्रतीक्षा दोपहर से हर क्षण कर रहा था वह भी मेरे मस्तिष्क से कुछ समय के लिए निकल गया I प्रक्रति का आकर्षण कुछ होता ही ऐसा है I इसका वर्णन शब्दों के माध्यम से करना बड़ा ही जटिल कार्य है I फिर भी इस आकर्षण की तुलना मैं उस शिशु की माँ से करना चाहता हूँ जो कई घंटो से अपने शिशु  से दूर हो जिसका एकमात्र भोजन माँ का दूध हो I अचानक माँ आए शिशु खिलखिला कर हंसने लगे , उसे थोडी देर माँ दूध पिलाए और पुनः कुछ काम करने चली जाए I छुपते सूरज को भी माँ की तरह अन्य काम भी होते हैं अर्थात उसे संसार के किसी अन्य स्थान पर जाकर अंधकार समाप्त करके उजाला करना होता है I और हम, हाँ , हम उस बच्चे की तरह उसकी सुन्दरता का वर्णन नहीं कर पाते जिस बच्चे के पास भाषा नहीं होती है I प्राकृतिक सुन्दरता के वर्णन को मैं यहीं विराम देता हूँ अन्यथा बैल को भूल जाऊँगा I

सूर्यास्त हो रहा था और मुझे वह उगते सूरज की तरह ऊर्जा देते हुए आशावादी बना रहा था कि आज पिताजी बैल ज़रूर लाएंगे I मैंने न चाहते हुए भी सूरज की ओर से ध्यान हटाया तो दूर रास्ते पर दृष्टि गई I मैंने देखा कि एक व्यक्ति बैल लेकर आ रहा था I मै प्रसन्न हुआ कि पिताजी बैल लेकर आ गए I फ़िर देखा कि उस व्यक्ति के सिर पर टोपी नहीं थी जबकि मेरे पिताजी सदैव सफेद रंग की टोपी लगाते थे I उनके निकट आने पर पाया कि एक अन्य व्यक्ति अपने बैल को पोखर में पानी पिलाने लाया था I मेरे मन की स्थिति आप स्वयं को मेरे स्थान पर रख कर जान सकते हैं I मेरी आशा ने मेरा साथ दिया I इतने ही मैं दिखाई दिया कि एक व्यक्ति टोपी लगाए हुए एक बैल को लेकर आ रहा था I उनके निकट आने पर ज्ञात हुआ कि हमारा पडौसी गाय लेकर आ रहा था I मेरा धैर्य मेरा साथ छोड रहा था और एक ओर मन था की मान ही नहीं रहा था I मैं थक कर चबूतरे पर पडी छोटी उस चारपाई पर बैठ गया जिसपर हम सभी भाई बहन बाल्य अवस्था में बैठते और लेटते थे I उसको मैं हमेशा सुरक्षित रखना चाहता था परन्तु यह बात मैंने मेरे गाँव में रहने वाले भाई से नहीं कही थी और हाल ही में उसने वह चारपाई (खटोला) या तो तोड दिया या फिर किसी को दे दिया I

अब थोड़ा सा अंधेरा होने लगा था I मुझे दो आकृतियाँ  दिखाई दीं – एक टोपी पहने व्यक्ति की और दूसरी बडे सीगों वाले बैल की I मैंने ईश्वर से कहा-इसबार तो मेरी इच्छा पूरी कर दो I दूर से पिताजी ने आवाज़ दी, “अरे-----(रिक्त स्थान पर वह नाम आना है जिससे मुझे गाँव में पुकारा जाता था ) उस वक्त मुझे कोई हकीकत नहीं कहता था I हाँ विधालय में मेरा  यही नाम था I क्षमा करें उस नाम का उल्लेख में यहाँ स्पष्ट कारणों से नहीं कर सकता हूँ I कभी अपने नाम पर कहानी लिखकर आपके सामने लाऊँगा I तब वह भी जान लेना I पिताजी ने पुनः आवाज लगाई(लम्बी) I मैं दौड कर उनके निकट गया और हल्के से अंधेरे में बैल को देखने लगा I डांट पडी, “ अरे भाग, अपनी माँ से कह बैल को कुछ खाने को देकर इसका स्वागत करे I हम यहीं खडे हैं I” इतने में मौहल्ले के कई बच्चे इक्कठा हो गए और अपने घर जाकर बता दिया, “ पंडित लोकपाल शर्मा जी नया बैल ले आए हैं I” माताजी ने गुड खिलाकर बैल का स्वागत किया I बैल दहलीज़ से घर के अन्दर गया I पास के लगभग बीस आदमी बैल को देखने आ गये I लालटेन की रोशनी में बैल देखा गया I उस पर टिप्पणी की गईं I मैं इस दौरान प्रसन्नता के नए संसार में था I मैं बोला, “ कल सबसे पहले हल मैं ही चलाऊँगा I” माँ ने कहा, “ नहीँ, बैल गुस्से वाला भी हो सकता है I तेरे हाथ में इसे अभी नहीं देंगे I” मेरे  पिताजी जहांगीराबाद पैदल गए थे और वहाँ से पैदल आए थे Iइस लिए वे कुछ चिडचिडे हो  गए थे I वे गुस्से में माँ से बोले “तू चुप रह I बैल को बिगडैल बता रही है I कुछ शुभ-शुभ बोल I” माताजी बडबडाती हुईं घर के अन्दर चली गईं और मैं सिर्फ कल के बारे में सोच रहा था I मित्रो इसमें मैंने माँ को ‘तू’ गलत कहा है परन्तु यथार्थ यही है I गाँव में उन दिनों लगभग सभी पुरुष अपनी पत्नियों (सिर्फ एक समझना) को ‘तू’ शब्द से ही सम्बोधित करते थे I और तो और, जब बच्चे पिता को अपनी पत्नी से ‘तू’ सम्बोधन सुनते थे तो वे भी अपनी माँ को ‘तू’ कहकर ही बातें करते  थे I आज स्थिति बदल गई है I काश I. यह पहले बदलती तो मैं भी अपने में सुधार कर पाता I मेरी माताजी स्वर्गीया श्रीमती  गेंदा शर्मा जी 29 जून, 2014 तक जीवित रहीं I वे हमारी सेवा और सम्मान से बहुत प्रसन्न थीं I और मैं शिक्षित होकर ,लेखक बनकर ,कवि बनकर , शायर बनकर , मंच से हजारों  बार भाषण देकर , वाद-विवाद प्रतियोगिता में प्रदेश स्तर पर दूसरा स्थान पाकर , शिक्षक बनकर भी अपनी माँ को अन्त तक ‘तू’ ही कह्ता रहा I बडे प्रयास के बाद अन्य लोगों के सामने उन्हें दस बीस बार ‘आप’ कहा I मुझे मेरी माँ और आप क्षमा करें I   

हम बैल की बातें करते-करते सो गए I सुबह हुई I मैंने गुड के साथ दही पी और बैलों को हल में जोतने का जोश मुझ पर हावी हो गया I सुबह पड़ोसियों में से एक ने तफरीह लेते हुए मेरे पिताजी से कहा, “पंडित जी (व्यावसायिक पंडित नहीं), यह क्या कर लिया ?” पिताजी ने पूछा, “क्या ?” पडौसी बोला, तुम बूढ़े हो रहे हो , आँखे थोडी कमजोर हो रही हैं और काला बैल ले आये I रात को रस्सी तुडा कर भाग गया तो दिखाई भी नहीं देगा I” यह सुनकर अन्य खड़े लोगों ने ठहाका लागा दिया I पिताजी को यह सुनकर बुरा नहीं लगा क्योंकि वे ओरों की मज़ाक खुद भी उडाते थे I लेकिन मुझे ये शब्द अप्रिय लगे I योजना अनुसार, पिताजी ने हल और जुआ कंधे पर रखे I मेरे छोटे भाई अनिल ने पुराने बैल का रस्सा पकडा और मैंने नये बैल का रस्सा थामा I छोटे भाई देशभक्त ने रस्सी और लोटा हाथ में लिए जिनसे जंगल में कुए से पीने के लिए पानी निकाला जा सके I हम तीनों खेत की ओर चल दिए I नए बैल का आगमन उन दिनों कम से कम आजकल शहरों में महंगी कार के आने जैसा महत्वपूर्ण अवसर होता था I पहले पिताजी ने हल चलाया फिर मुझे अवसर मिला I मैंने कार्य सफलता पूर्वक किया तो पिताजी ने कहा चलो खेत में फसल (गैंहूँ) बोते हैं Iअब पडौसी किसान नये बैल का प्रदर्शन देखकर जा चुके थे I घर से गैंहूँ (दाने) लाए गये I

मैं हल चला रहा था और पिताजी हल  से बने गढ्ढे में गेंहूँ के दाने डाल रहे थे जिन्हें कुछ दिनों में पौधों की शक्ल लेनी थी I मैं अपनी उपलब्धि पर कुछ ज्यादा ही प्रसन्न था I मैंने दोनों बैलों को दिशा निर्देश देने के लए दोनों की रस्सियाँ सीधे हाथ से पकड रखी थीं I न जाने कैसे हल से बनी पंक्ति टेढ़ी हो गई I पिताजी स्वयं हल चलाते समय सीधी पंक्ति बनाते थे I इसलिए उनको यह देख क्रोध आ गया I उन्होंने पीछे से मेरे सिर पर एक चाँटा मारा लेकिन मैं आगे ही देखता रहा यदि पीछे देखता तो हल में लगा ब्लेड (काफी मोटा) बैलों के किसी पैर को घायल  कर सकता था I पिताजी चाँटा मारने के बाद भी कुछ बोलते रहे I वे बोले, “तूने पंक्ति टेढी कर दी I अरे मैं क्या तुझे इसीलिए विधालय मैं पढ़ा रहा हूँ I” मैंने हिम्मत जुटा बैलों को रोका और धीरे से पूछा, “ स्कूल में क्या में हल चलाना सीखने के लिए जाता हूँ I” यह सुनकर पिताजी का क्रोध और बढ़ गया I वे बोले, “ अबे नालायक, कमअक्ल तुझे यह पता होना चाहिए कि पढ़े लिखे आदमी को हर काम अनपढ़ व्यक्ति की तुलना में अधिक सुन्दर ढंग से करना चाहए I चाहे वह हल चलाना हो या फसल काटना हो I और तू याद रख कि अब तू छटी क्लास में पढता है तीसरी मै नहीं I” मेरे पिता कक्षा 6 को अच्छा स्तर मानते थे I वे स्वयं दर्जा (कक्षा) 4 पास थे I उनके समय में बहुत कम बच्चे स्कूल जाते थे और कक्षा 4 तो अच्छा माना जाता था I उन्होंने मुझे कक्षा 6 तक आते-आते सत्यवादी हरिश्चंद्र, सत्यवान और सावित्री, वीर अभिमन्यु और लैला मजनू नामक पुस्तकें और कुछ पृष्ट श्री रामचरित मानस के पढ़वा दिए थे I

मैं डांट खाकर आगे चुप रहा और सोचता रहा कि पिताजी आख़िर हल चलाने की कला को उस शिक्षा से क्यों जोड़ रहे थे जिसे मैं किसान आदर्श इन्टर कालिज ,रोंडा ,बुलंदशहर ,उ.प. भारत में पा रहा था I  सन् 1984 में मैंने विधाभवन शिक्षक महाविधालय,उदयपुर राजस्थान में बी.एड. में प्रवेश लिया और महात्मा गाँधी जी द्वारा दी गयी  शिक्षा की यह परिभाषा पढ़ी.

By Education I mean an all- round drawing out of the best in the child and man- body , mind and spirit.”
By M.K. Gandhi

अर्थात

शिक्षा से मेरा तात्पर्य बच्चे एवं बड़े आदमी के शरीर मस्तिष्क और आत्मा में उपलब्ध सर्वोत्तम को बाहर लाना है I 

द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी

गाँधी जी आगे कहते हैं- शिक्षा के उद्देश्यों में स्वयं को परिस्थितियों के अनुकूल ढालने की कला सिखाना भी है I

मेरे पिताजी भी वही सिखा रहे थे जो गाँधी जी ने शिक्षा की व्याख्या करते हुए और उसके उद्देश्य बताते हुए कहा था I अन्तर सिर्फ इतना था गांधी जी ने बातें कलम से कागज़ पर लिखी थीं और उनकी बातें विश्व के बडे लोगों ने सुनीं और सराही थीं परन्तु मेरे पिताजी उन्ही बातों को गाँव नबीनगर (बुलंदशहर) उ०.प्र०.,भारत, के एक खेत में हल के माध्यम से सिखा रहे थे I मुझे यह बात खेत में सन् 1971 में सिखाने की कोशिश की गई परन्तु इसे मैं समझ पाया सन् 1984 में और अधिक ढंग से समझ पाया हूँ जब मैं 55 वर्ष का हो गया हूँ I इसे सम्पूर्ण रूप से समझने में शायद 55 वर्ष और लगें I इस लम्बी कहानी सुनने के बाद ,आप मेरी लम्बी आयु की प्रार्थना करना I

                                                              द्वारा हकीकत राय शर्मा  

समाप्त

ईश्वर से प्रार्थना है कि जैसा ज्ञानवर्धक चांटा मुझे लगा था वे उन सभी को लगवाएँ जिन्हें इसकी आवश्यकता है I  आपको सलाह है कि अच्छी बात जल्दी सीखना एंव क्रियान्वित करना I मेरी तरह देर से नहीं I मैं ईश्वर के समक्ष एक बार फिर इतने उत्तम माता-पिता देने के लिए नतमस्तक होता हूँ I 


उनकी शिक्षा और बलिदान बहुत बहुमूल्य हैं I मैं आपको मेरी कहानी ज्ञानवर्धक चाँटा सुनने अथवा पढ़ने के लिए धन्यवाद देता हूँ I

यदि आप चाहें तो कहानी को अन्य शीर्षक देकर मुझे ब्लॉग पर टिप्पणी करके सूचित करने की कृपा कर सकते हैंI

अगर तुम्हे कुछ बुरा लगा तो शर्मसार हूँ मैं I
बात मेरी बताना ओरों को गर हक़दार हूँ मैं II


                                                         हकीकत राय शर्मा